पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महर्षि परशुराम के शिष्य “सुमेधा” ऋषि द्वारा रचित त्रिपुरा
रहस्यम् में इनका वर्णन मिलता है। इस ग्रन्थ में भगवान परशुराम, दन्तात्रेय तथा हयग्रीव और
अगस्त्य मुनि के माध्यम से वार्तालाप की शैली में भगवती के प्राकट्य की कथा एवं महात्म्य का
विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके प्रादुर्भाव से जो कथा प्रचलित है। उसके अनुसार जब भगवान
शिव के तीसरे नेत्र से जो कथा प्रचलित है। उसके अनुसार जब भगवान शिव के तीसरे नेत्र से कामदेव
भस्म हो गया तथा माता गौरा ने उस कामदेव के शरीर की भस्म को एकत्रित करके उसका एक पुतला बनाया
तथा भगवान आशुतोष से कहने लगीं कि हे स्वामी इस पुतले में प्राण प्रतिष्ठा कर दो क्योंकि गणपति
के लिए कोई सखा नहीं है। अतएव यह हमारा गणपति इसके साथ क्रीड़ा किया करेगा।
माता जगदम्बा की विनती पर योगेश्वर भगवान महाकाल ने उस पुतले में प्राण
प्रतिष्ठा कर दी परन्तु शिवजी के क्रोध में भस्म होने के कारण उस भस्म में तमोगुण के परमाणु थे।
वह पुतला मनुष्य रूपधर कर जीवित हो गया किन्तु भस्म में तमोगुण होने के कारण वह असुर बना। इस
भस्म के पुतने में जो जीव आया वह महालक्ष्मी के “माणिक्य“ शेखर नाम का एक सेवक था और वह घटना
कुछ इस प्रकार थी। एक समय गंगा तट पर माता लक्ष्मी तपस्या कर रहीं थीं तथा अपने नेत्रों को बंद
करके माता त्रिपुर सुन्दरी का ध्यान कर रहीं थी। उन्होंने अपने सेवक माणिक्य शेखर से कहा कि
देखा मेरी तपस्या में कोई भिग्न नहीं पड़ना चाहिए। तुम सावधानी से मेरी रक्षा करो एसा कह कर
लक्ष्मी जी ध्यान मग्न हो गईं तथा माणिक्य शेखर पहरा देता रहा, उसी समय एक रमणी “अलकनन्दा“ नदी
में स्नान करने आई। अन्दर गोता लगाते समय उसका पैर फिसल जाने के कारण वह डूबने लगी तथा उसने
अपनी सहायता हेतु चीक पुकार की उसकी चीक पुकार सुन माणिक्य शेखर दौड़ता है तथा उस रमणी के प्राण
बचा लेता हैं उस रमणी का सुन्दर यौवन देख कर माणिकय शेखर के हृदय में काम प्रकट होता है। इस
प्रकार माणिक्य शेखर का नीचता पूर्ण व्यवहार देख वह रमणी घोर पुकार करती हुई माता लक्ष्मी जी की
शरण में आ गयी उपयुक्त वृतान्त जानने के बाद माता लक्ष्मी ने माणिक्य शेखर को दैत्य वन जाने का
श्राप दिया। तत्पश्चात् उस माणिक्य शेखर की रूह उस पुतले में आ गयी।
इस प्रकार यह असुर बना तथा कुछ दिनों के पश्चात् इसमें असुर भाव प्रगट होने लगे एवं वह गणेश जी
को अपमानित तथा कार्तिकेय जी के साथ युद्ध करने लगा। अन्ततः उसने धन, वैभव, वल तथा शक्तियों की
प्राप्ति के लिए उसने गंगा के किनारे दस हजार वर्ष तक तप किया। जब उसके तप से भगवान शंकर
प्रसन्न हो गये तो उसके समक्ष पहुँच कर उससे बरदान मांगने के लिए कहा तो उस दैत्य ने बरदान रूपी
जीवन दान मांगा अर्थात अमरत्व की अभिलाषा दिखाई परन्तु भगवान उसे अमर करने में असमर्थ थे इस
प्रकार वह निराश होकर पुनः तपक रने चला गया तथा उसने एक लाख वर्ष तक तप किया इससे संतुष्ट होकर
भगवान आशुतोष ने उसे त्रिलोक पर शासन करने तथा देव, दानव, मानव आदि सभी पर विजय प्राप्त करने का
वरदान दिया। परन्तु ब्रह्मादि देवों को उसके अधीन नहीं रखा और ना ही अमरत्व का बरदान दिया। वह
दैत्य इससे संतुष्ट नहीं हुआ और पुनः तपस्या करने चल दिया। उपर्युक्त उसने दो करोड वर्षों तक
घनघोर तपस्या कर डाली उसके महान तप से इन्द्रादि समसत देवताओं के सिंहासन हिलने लगे तथा पृथ्वी
पर प्रलय सी आ गयी।
इस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण की अर्थ व्यवस्था नष्ट होती देख भगवान आशुतोष ने उस दैत्य को देवगण,
नवमानव, योनिष प्राणी, वृक्ष और पर्वत, मृग, सर्प, पक्षी, किरीट पतंग आदि यज्ञ, गन्धर्व,
विद्याधर, किन्नर, पिशाच, वृह्मा, विष्णु और महेश तथा प्रचलित अस्त्रशस्त्र से मृत्यु ना होने
की आश्वस्थी दी। बस उस बरदान के मद में आकर उस दैत्य ने अपने आपको अमर समक्ष कर देवताओं को
त्रास देने लगा तथा इन्द्रादि समस्त लोको पर अपना अधिपत्य प्राप्त कर लिया। एक समय वह त्रिदेवों
ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लोकों पर विजय प्राप्त की इच्छा से उनके धामों की तरफ कूच किया उस
दैत्य को अपनी तरफ आते देख त्रिदेव अपने धाम सहित अदृश्य। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात उसी
दैत्य की मनोवृत्ति इन्द्राणि के प्रति आकर्षित हुई अतः इन्द्राणि को ज्ञात होने के पश्चात् वह
अपने पिता पुलोम के साथ माता पार्वती के आश्रय में कैलास पर्वत पर रहने लगीं। जब उस दैत्य को यह
पता चला कि इन्द्राणि ने कैलास पर आश्रय लिया है तो वह अपनी सेना सहित कैलाश की ओर चल दिया
परन्तु उस समय जब गणेश जी को यह पता चला कि मेरे वचपन का सखा आ रहा है। तो वह प्रसन्नचित उसका
स्वागत करने पहुँचे। किन्तु उस दैत्य में गणेश जी द्व़ारा दिया गया सम्मान का तिरस्कार करके
उसका उपहास करने लगा। उसने कहा कि जाओ अपने पिता शंकर से कहा कि इन्द्राणि को लेकर मेरी शरण में
आजाऐं, उसके अपमान भरे शब्द सुनकर श्री गणेश क्रोधित हो गये तथा दोनों के बीच द्वंद युद्ध आरम्भ
हुआ। दैत्य के इस आचरण पर श्री भगवान महाकाल क्रोधित हो गये और उसकी ओर त्रिशूल लेकर दौडे तब
भगवती पार्वनी ने भगवान आशुतोष को रोका तथा कहा कि हे स्वामी यह दैत्य आपके वरदान के कारण इतना
वलवान हुआ है।
अतः इसकी मृत्यु आपके हाथों से नहीं हो सकती तत्पश्चात् माता जगदम्बा ने हाथ में त्रिशूल उठा
लिया तथा उसे “भंड़” नाम से सम्बोधित करते हुए कहा कि यदि तू मेरू पर्वत के कैलाश शिखर पर आयेगा
तो तेरे सिर के सौ टुकडे हो जायेंगे उसी दिन से उसका नाम भंडासुर पड़ा। भंडासुर ने दश दिशाओं को
पालकी वाहन बनाया तथा शक्ति के पराक्रम से भंडासुर ने एक सौ ब्राह्माण पर अधिकार प्राप्त कर
लिया। तारका सुर नाम का एक दैत्य था वह पांच ब्रह्माण का प्रतिनिधित्व करता था उसने अपनी पुत्री
का विवाह भंडासुर के साथ कर दिया तथा भंडासुर को पांच ब्राह्माण दान दिये इस प्रकार भंडासुर एक
सौ पांच ब्राह्माण का शासक हुआ तथा देवताओं पर घोर अत्याचार करने लगा। तत्पश्चात् देवताओं ने
मंत्रणा करने के पश्चात् त्रिपुर सुन्दरी भगवती का महायज्ञ प्रारम्भ कर दिया शिव, विष्णु,
इत्यादि समस्त देवता यज्ञ में उपस्थित थे। विधिपूर्वक किये गये इस यज्ञ में पूर्ण आहुति देव
गुरू वृहस्पति ने दी उस यज्ञ की पूर्ण आहुति से एक विशालकाय ज्वाला प्रकट हुई तथा उससे भगवती
त्रिपुर सुन्दरी का प्रादुर्भाव हुआ तत्पश्चात् देवी ने नारद जी को शांक्तिदूत बनाकर भेजा,
परन्तु वह दैत्य भंडासुर नहीं माना तथा माता जगदम्बा से युद्ध करने को तैयार हुआ तत्पश्चात् माँ
भवानी से उसका रणभूमि में घोर संग्राम हुआ अंततः भगवती के हाथों मोक्ष प्राप्त करके अपने धाम को
चला गया।
तदन्तर भंडासुर के मोक्ष प्राप्त करने पश्चात् इन्द्राणि देवता शोभायमान होने लगे। यह देवी
भुक्ति मुक्ति प्रदायिनी हैं। इनके अन्यत्र नाम भी हैं- षोडशी, ललिता, लीलावती, लीलामती,
ललिताम्बिका, लीलेशी, राजराजेश्वरी। इनकी चार भुजाऐं तथा तीन नेत्र हैं। सदाशिव पर स्थित कमल के
आसन पर विराजमान इनके चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष-वाण, सुशोभित हैं। यह देवी सौम्य हैं जो
मनुष्य इस देवी का आश्रय पाता है। उसमें तथा देवताओं में कोई अंतर नहीं माना जाता है। इनको
प´चवक्त्र अर्थात पांचमुख वाली कहा गया है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर होने के कारण इनको
पाँच मुखों वाली कहा गया है।